श्री समर्थ गुरुदेव बाबा शंकरलालजी महाराज का संक्षिप्त
जीवन परिचय
•••• बाल अवस्था तथा प्रारंम्भिक जीवन •••
इस महान आत्मा का जन्म श्री प्यारे लाल जी चित्रगुप्त
वंशीय कुल के यहाँ ग्राम हिम्मतपुर (बृज) जिला आगरे में ज्येष्ट बदी द्वादशी सम्वत् 1923 (सन् 1866) को हुआ। इनके पूज्य पिताजी बड़े सदाचारी शांति प्रिय तथा धनी व्यक्ति थे। अपनी इन खूबियों के कारण ग्राम तथा आस-पास दूर तक बड़े आदर की दृष्टि से देखे जाते थे। आज भी यह स्थान दर्शनीय है व इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण देता है। कि आपका परिवार कैसा सम्पन्न रहा होगा व कैसा दौर दौरा होगा। स्वयम की रहने की हवेली, श्री राधा कृष्ण का विशाल मंदिर, पास में ही बना हुआ देवी का मंदिर, जहाँ आज भी मेला लगता है, वह स्थान (कचहरी) जहाँ बैठ कर तहसील वसूल की जाती थी, श्री शिवजी का सुन्दर मंदिर जिस पर महाराज जी की यादरगार में ‘शिव शंकर लाल’ के नाम का बीजक (पत्थर) आज भी लगा हुआ है। चूंकि गुरुदेव के घर का नाम शिवशंकर लाल ही था बाद में समर्थ बड़े बाबा महाराज ने शंकरलाल नाम रखने की कृपा की थी।
इस प्रकार और भी कुएं आदि बनी हुई चीजें मौजूद हैं, कि जिन्हें सेवकों को स्वयं वहाँ की यात्रा करके देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। श्री शंकर लाल जी महाराज के 6 भाई व एक बहिन थी। आप सबसे छोटे पुत्र होने के कारण इन पर सबका प्रेम अधिक था। आपकी माताजी का स्वर्गवास आपके बाल्यकाल में ही हो गया था।
आपको बाल्यकाल से ही साधू सेवा, सत्संग तथा ईश्वर भक्ति में बड़ी रुचि थी। आपके ग्राम में जब भी कोई साधू आता था तो आप बड़ी श्रद्धा से उसकी सेवा करते थे। एवं सदैव इस खोज में रहते कि समर्थ महात्मा की प्राप्ति हो। एक दफा एक साधू ग्राम में आये आपने उनकी खूब सेवा की तथा भोजन करने के लिए आग्रह किया। साधू ने कहा कि हम किसी के यहाँ भोजन नहीं पा सकते हैं। अतः श्री शंकरलाल जी महाराज दौड़कर गये व पेड़े खरीदकर ले आये व पेश किये। साधू ग्राम के बाहर कुआं बना था, वहाँ पहुँचा व आपको आज्ञा दी कि लोटा मांजकर कुए से पानी भरें। वैसा ही किया गया साधू ने भरा हुआ लोटा अपने हाथ में लिया व कुएं में फेंक दिया। इसको देखकर श्रीशंकरलाल जी बड़े चिन्तित हुए व सोचा कि हाथ से लोटा भी गया अब घर जाकर क्या कहेंगे। आपकी परेशानी को देखकर साधू ने कहा कि फिक्र न करो कुऐं के किनारे हाथ फैला कर बैठ जाओ ऐसा करते ही भरा भराया लोटा अपने आप इनके हाथ पर आकर रख गया। फिर साधु ने पेड़े का दोना अपने सामने रक्खा। इस पर श्री शंकरलाल जी महाराज ने कहा कि इसमें से कुछ प्रसाद हमें भी मिलेगा क्या? साधु ने कहा कि यह तो हम खायेंगे इसमें से तुम्हें रत्तीभर भी नहीं दूँगा। दोनें में आप से ज्योहि पेड़े निकाले तो देखा कि एक पेड़े पर मरा हुआ चैंटा चिपका है। साधु ने उसे देखते ही पेड़े का पैकेट वापस करते हुए कहा कि हम इन पेड़ों को ग्रहण नहीं कर सकते। इनमें मरा हुआ चैंटा लगा है। वह पेड़े में से उस चैंटे को निकालकर साधू ने जमीन पर रक्खा एवं उस पर पानी का छींटा मारा तो अध कटा एवं मरा हुआ चॅटा चलने लगा व जहाँ तक नज़र गई तो देखा गया कि कुऐं की दीवार पर वह चैंटा चढ़ रहा है। पेड़ों का दौना श्री शंकरलाल जी महाराज के हाथ में था। साधू ने कहा कि तुम खालो। इस पर आपने फ़रमाया कि तुम तो इन में से एक रत्ती भी मुझे देने से इन्कार कर रहे थे। अब तो यह सब के सब पेड़े हमें ही खाने को मिल रहे हैं। साधू हंस दिया व कहा कि गांव में किसी से नहीं कहना कि ऐसा साधु आया है जो चमत्कारिक बातें करता है व कहा कि हम फिर कभी आकर तुमसे मिलेंगे व चल दिया। श्री शंकरलाल जी महाराज से न रहा गया और ग्राम में जाकर लोगों से जिक्र किया। गांव वालों ने फौरन ही उसको तलाश की परन्तु वह कहीं नहीं मिला।
आप माध्यमिक परीक्षा में प्रथम श्रेणी में सफल हुए जिसे देखकर सबको बड़ा आश्चर्य हुआ। वह इस सफलता के पाने पर अपने गुरु (अध्यापक) की सेवा में कुछ फल तथा मिठाई आदि सामान के साथ गुरु दक्षिणा भेंट करने हेतु पहुँचे। गुरुजी को इनके इतने अच्छे डिवीजन से पास होने से स्वयं ताज्जुब था। भेंट स्वीकार करने से इन्कार किया। श्री शंकरलाल जी महाराज ने बड़ी नम्रता से अधिक आग्रह करने पर फरमाया कि अपनी गुरुमाता के पास जाओ यदि वह स्वीकार कर लेती हैं तो मुझे कोई आपत्ति नहीं होगी। अतएव आप उनकी सेवा में पहुँचे। पहिले तो उन्होंने भी मना किया परन्तु आपका प्रेम, सेवा तथा आग्रह को टाल न सकीं व भेंट स्वीकार कर ली। आपको अत्यंत प्रसन्नता हुई व चरण स्पर्श कर आशीर्वाद प्राप्त करके वापस आये।
एक समय आपके यहां कुछ दफीना (गढ़ा हुआ धन) मिला। आपके पिताजी ने उसे सातों पुत्रों को बांटा। आपके हिस्से में भी 100 रुपये आये। इन्होंने जब तक यह सब रुपये खत्म न हो गये, सदैव मथुरा वृन्दावन आदि तीर्थ यात्रा करने तथा साधु सेवा व ठाकुरजी के निमित ही खर्च किये। किसी भी अन्य कार्य में एक पैसा भी खर्च न किया। यह था आपका अटूट प्रेम भाव तथा श्रद्धा को जन्म से ही आप में कूट-कूट कर भरा था।