संत शिरोमणि बड़े बाबा कालूराम जी महाराज
••• (प्रारंभिक परिचय) •••
श्री समर्थ 108 श्री बड़े बाबा कालूरामजी महाराज का जन्म सम्वत् 1907 विक्रमी (सन् 1850 ई.) में गाँव कोतवाल राज्य ग्वालियर में हुआ था। कोतवाल का प्राचीन ऐतिहासिक नाम कुन्तलपुर है जहाँ पर भक्त राजा चन्द्रहास का जन्म द्वापर में हुआ था। इसी स्थान पर कुन्ती ने सूर्य देवता का आव्हान करके महारथी कर्ण को जन्म दिया था। कर्ण का जन्म स्थान ‘सुजवार’ आज भी वहाँ पर आसन नदी के तट पर है। श्री बड़े बाबा महाराज के पूर्वजों का निवास तजावर ग्राम से है जो क्यारी और चम्बल नदियों के बीच बसा हुआ है।
… गृहस्थ जीवन …
इनके पूर्वज बड़े धनाढ्य थे और बौहरे कहलाते थे। इनके पिता तीन भाई थे। सबसे छोटे भाई पं. धनीराम मिश्र के ये इकलौते पुत्र थे। इनका लालन-पालन बड़े लाड़ प्यार से हुआ। परन्तु बचपन से ही इनकी भजन में अभिरुचि रही। इनके पिता ने अपने पुत्र का
विवाह जल्दी ही देवरी ग्राम के एक संभ्रात कुल की कन्या धर्माबाई से किया। ये पाठक गोत्रीय सनाढ्य ब्राह्मण थे। आयु के बढ़ने के साथ- साथ इनका वैराग्य प्रबल होता गया।
इनके घर लेन-देन का कार्य होता था। एक वर्ष अकाल पड़ने पर आसामियों से धन की कठोरता से वसूली की गई। इन्हें इस धन्धे से अरुचि हो गई अतः घर से चल दिये। कुछ समय के लिए नूराबाद तहसील में नौकरी की। इनके पास तुलसी की एक हज़ार गुरियों (मनिकाओं) की माला थी। यह हज़ारी माला सदा इनके पास रहती और उपक्रम बराबर चलता रहता था। ये रामोपासक थे, रामायण सुनने के बड़े प्रेमी थे।
• गृहस्थी का त्याग •••
एक दिन नूराबाद के समीप एक ग्राम में रामायण हो रही थी। यह भी सुनने गये। रात के 12 बजे इन्हें तहसील (नूराबाद) में पहरा बदलवाना था, रामायण सुनने में यह इतने तल्लीन हो गये कि इन्हें पहरे का ध्यान नहीं रहा। प्रातः 4 बजे रामायण समाप्ति के समय इन्हें पहरे का ध्यान आया। यह शीघ्रता से तहसील पहुँचे और जो व्यक्ति पहरे पर था उससे क्षमा मांगने लगे। इनकी बातें सुन पहले वाला व्यक्ति अचम्भे में आ गया। उसने कहा “रात्रि के तीन बजे तुमने ही तो मुझको पहरा बदलवाया है। फिर यह क्षमा याचना कैसी ?” यह सुनकर इन्हें नौकरी से घृणा हो गई। इनके कारण धनुर्धारी राम को स्वयं पहरा देना पड़ा। यह विचार करते ही ये बेसुध से हो गये इन्होंने नौकरी से तत्काल त्याग-पत्र दे दिया। तहसीलदार ने इन्हें नौकरी न छोड़ने के लिए बहुत समझाया परन्तु इन्होंने एक न मानी तथा 35 वर्ष की आयु में गृहस्थ जीवन त्याग कर सन्यासी हो गये। अब यह प्रतिदिन नूराबाद के पास नदी के पुल की गुमटियों में बैठकर अपनी हज़ारी माला जपते रहते थे। एक दिन वहां पर सफेद घोड़ों पर बैठकर ‘सैदुल्ला साहब’ दोनों भाई आये, इनसे कहा कि ‘तुम पीपल के पेड़ पर जाओ तुम्हारा काम वहां से होगा।’ यह सैदुल्ला साहब दोनों भाई सिद्ध सैयद थे। जिस पीपल के वृक्ष का उन्होंने हवाला दिया था, वह सांक स्टेशन से दो मील के लगभग कोतवार के मार्ग में है।
ये उस पीपल के वृक्ष के नीचे पड़ी हुई शिला पर बैठ गये उनको वहां अन्न और जल के बिना बैठे हुए तीन रात हो गये। उस वृक्ष से एक सिद्ध पुरुष प्रकट हुए और उन्होंने इनसे कहा कि तुम्हारा कार्य कोतवार के समीप नदी के तट पर स्थिर छंकुर के वृक्ष से होगा, जहां महादेव बाबा चबूतरे पर प्रतिष्ठित हैं। ये उस वृक्ष तले भजन करने लगे । कालान्तर में जटाजूटधारी शिवजी दिव्य पुरुष रूप में सामने आये और उन्होंने इन्हें अपने शिष्य के रूप में ग्रहण कर लिया और कोतवाल में ही भजन करने की आज्ञा दी।
इन्होंने अपनी जन्म भूमि कोतवाल में घोर तपस्या की। दिक् दिगान्त में नाम हो गया। इनकी जन्म-भूमि कुन्तलपुर आधुनिक कोतवाल ऐतिहासिक स्थान है। जिसके राजा चन्द्रहास परमभक्त थे। भक्तमाल में इनका वर्णन मिलेगा। यहां पर हरिसिद्धि देवी का पांच हजार वर्ष पुराना प्राचीन मंदिर आज भी है। और वह प्राचीनकाल की ऐतिहासिकता का प्रमाण है।
जब बड़े बाबा मौज में आते थे तो कहते थे कि ‘पहले मैं पत्थर को नवाब हतो, फिर हों बेमुल्क को नवाब भयो अब हों राजा चन्द्रहास हों। मेरे 88000 घोड़ा हैं, 989 तोपें हैं, 12000 गोंडवाने के गौंड हैं, सिंग 1 लाख भीरवरदारी है सो मथुरा मंडल पै चढ़ाई के समय वहां जमा होगी। 14000 गुप्त और 14000 प्रकट मेरे चेला हैं।’ इस कथन से यह स्पष्ट होता है कि वह राजा चन्द्रहास के अवतार थे। श्री समर्थ बड़े बाबा महाराज बहुधा कहा भी करते थे कि ‘हों तो राजा चन्द्रहास हों।’ और अपने प्रिय शिष्य शंकरलाल की ओर संकेत करके, यह सिहोनियां का राजा सोहनपाल है, जापैं पारस की पथरिया है।’
बड़े बाबा महाराज से लोगों को बड़ा लाभ पहुँचा। वह अचला बांधते थे लंगोटी कभी नहीं लगाई। जब सायंकाल को सैर के बाद लौटते तो नदी किनारे अपने आश्रम के अंधे कुंए के उस पार बैठ जाते और फिर लोगों से बातचीत करते रहते। वह अन्तर्यामी थे। जिसका प्रमाण दर्शकों को स्वयं मिल जाता था। ठीक ही कहा गया है-
‘जाति, आयु और वर्ण पर, कभी न देना ध्याना साधु पढ़ा हो या नहीं, करता है कल्याण ॥ सत्य धर्म है, मौज तप, आत्म ज्ञान है ज्ञान । नहीं त्याग सम सुख कहीं, महायज्ञ जप जान ।’
वे पढ़े लिखे कुछ भी नहीं थे, परन्तु उनके मुख से निकले हुए शब्द वेदोक्त सूत्रों का अर्थ रखते थे। उनके मुख से कोई शब्द ऐसा नहीं निकला जो निरर्थक अथवा असत्य हुआ हो । बाबा जी के निम्न वचनामृत इनका प्रमाण हैं –
1. समझ आगे, समझ पीछे, समझ की ढमढेरियां समझ मैं से, समझ काढ़े वही गुरु मनमेरियां ॥
2. यह बटेश्वर का मेला है, भैया बटेश्वर के मेले में जितने आये सब चले गये, मगर वटेश्वर का मेला आज भी चल रहा है।
3. साधु कभी मरते नहीं, पर होना साधु चाहिए। बड़े बाबा के दरबार से विमुख, कभी कोई नहीं लौटा।
प्रातः समय से सायंकाल तक वन में विचरण ही उनकी दिनचर्या थी। पहिले ये नदी के तट पर आश्रम में रहते थे। धूनी लगती थी। आश्रम को ‘अखाड़ा कहा जाता था। सफेद अचला, सफेद चादर, सफेद दोहर और सफेद कपड़ा चढा हुआ छाला, यह उनकी
देश-भूषा थी। किसी ऊ परी तिलक छाप अथवा आडम्बर के वे कायल नहीं थे। पिछले कई वर्षों से माला भी छोड़ दी थी। चौबीसों घंटे यहाँ तक कि सुप्तावस्था में भी भजन शक्ति के द्वारा दर्शन के निमित्त आए हुए यात्री की आत्मा और मन को प्रभावित करते थे। वाद- विवाद के रूप में वे उपदेश नहीं देते थे। उनकी कृपा दृष्टि बड़ी मोहक और कल्याणकारी थी। उनसे किसी यात्री अथवा प्रार्थी को कुछ कहना नहीं पड़ता था। वह स्वयं दर्शक के मन का हाल और परिणाम कह दिया करते थे।
… अंतिम झांकी •••
65 वर्ष की अवस्था में उनके योग्य शिष्य श्री बाबा शंकर लाल महाराज ने उनकी बड़ी सेवा की थी। पूरे 6 माह विरैहरुआ से कोतवाल आने जाने में ही बिताए, न ढंग से सो पाते, ना खा पाते थे। बड़े बाबा के एक मात्र शिष्य बाबा शंकरलाल की कठिन परीक्षा हो रही थी। अन्त में वे उस परीक्षा में सफल हुए। एक दिन भरी सभा में बड़े बाबा ने कहा कि ‘शंकरलाल मेरा इकलौता बेटा है। जो कुछ मेरे पास है। मैं उसे दे चुका हूँ एक चीज और रह गई है वह भी उसको दे दूंगा।’
सन् 1915 में बड़े बाबा महाराज ने चैत्र कृष्ण 4 के बाद पूछा कि ‘उत्तरायण सूर्य कब तक रहेंगे’ तत्पश्चात एकादशी का एक दिन आया। कई दिन पूर्व से उन्होंने भोजन करना छोड़ दिया था। भोजन छोड़ने से पूर्व उन्होंने बाबा शंकरलाल जी से उड़द की दाल पकाने को कहा। भोजन बनने पर उन्होंने अपने प्रिय शिष्य बाबा शंकरलाल जी से साथ खाने को कहा। वे कुछ संकोच करने लगे तब बड़े बाबा ने कहा “हम भी जोगी तुम भी जोगी, करें कुण्ड का मेला, बिना छाल का रूप दिखायें, हम गुरु तुम चेला’। सम्वत् 1972 चैत्र कृष्णा एकादशी बुधवार के दिन गोधुलि बेला में वे ब्रह्मलीन हो गये।
इस प्रकार भारत का एक देदीप्तमान नक्षत्र अस्त हो गया। उनकी कीर्ति अमर है और उनकी प्रेरणा तथा आशीर्वाद आज भी अनेक जीवों का कल्याण कर रहे हैं।
‘कल्याण’ मासिक पत्र गोरखपुर से संत विशेषांक नं. 1 वर्ष 12 पृष्ठ 849 पर श्री समर्थ 108 श्री बाबा कालूराम महाराज के सम्बंध में निम्न प्रकार के उल्लेख हैं भगवान श्री रामचन्द्र के अनन्य उपासक और साक्षात्कारी महात्मा हुए हैं। इनका शिष्य समुदाय बहुत बड़ा है।
बड़े बाबा महाराज जाति-पांत को नहीं मानते थे शंकराकोरी तथा क़ाज़ी बसई के क़ाज़ी मुसलमान होकर भी उनकी सेवा में रत रहे।